सत्य को जानना-6

सत्य को जानना-6

तुम सत्य को जानोगे और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा. (युहन्ना 8:32)

संसार और शरीर में बंधे मनुष्य की सीमाएं हैं, परन्तु परमेश्वर न तो संसार से बंधा है और न शरीर से. इसलिए जो मनुष्य के लिए असंभव है वह परमेश्वर के लिए संभव है1. मृत्यु के बाद इस संसार में मनुष्य के अधिकार तथा अवसर समाप्त हो जाते हैं. इसी बात को समझते हुए देश के कानून बनाए जाये हैं तथा योजनाएं निर्धारित की जाती हैं. पिछले अंक में हमने देखा था कि स्वतंत्रता के लिए मृत्यु से गुजरना आवश्यक है. परन्तु यदि एक मनुष्य मृत्यु से गुजर ही जाए, तो फिर संसार से तो उसका अस्तित्व और पहचान दोनों मिट जायेंगे. इसलिए, इस बात की समझ होने के बावजूद, कि मृत्यु से गुजरने पर ही स्वतंत्रता मिलेगी, मनुष्य अपने आप से स्वतंत्र नहीं हो सकता है. हाँ, एक स्थिति में उसकी मृत्यु उसको लाभ दिला सकती है और वह है- पुनरुत्थान, मृत्यु के पश्चात पुनः जीवन में लौटना. लेकिन मनुष्य यह चाह कर भी नहीं कर सकता. परन्तु परमेश्वर के लिए यह असंभव नहीं है.

परमेश्वर ने मनुष्य को सीमाओं में बाँध रखा है और वही जानता है कि उसे इन सीमाओं के परे कैसे ले जाया जाए. वह सिर्फ जानता ही नहीं बल्कि चाहता भी है. और चाहता ही नहीं बल्कि उसने इसका उपाय भी किया है. यह उपाय उसने यीशु में किया है, जो मसीह कहलाता है. संसार में उसे एक मनुष्य के रूप में जरूर पहचाना गया लेकिन वह एक साधारण मनुष्य नहीं है. एक मनुष्य के रूप में उत्पन्न होने से पहले ही वह इस संसार में प्रगट होता रहा. बल्कि उसका अस्तित्व तो अनादि काल से है2. उसने समस्त संसार की सृष्टि की3. वही जगत को स्थिर रखता4 और सब वस्तुओं को अपने सामर्थ्य के वचन से संभालता है5. वह परमेश्वर ही है. वही मनुष्य के रूप में प्रगट हुआ. इसी कारण जो उपाय मसीह में किया गया है वह मनुष्य की सीमाओं से परे का है.

इतिहास गवाह है कि उसकी मृत्यु हुई और पवित्रशास्त्र गवाह है कि वह फिर जी उठा. यह एक ऐसी घटना है जो मनुष्यों के लिए असंभव है, पर उसने कर दिखाया. लेकिन सृष्टि का स्वामी मृत्यु को प्राप्त करे यह एक अनहोनी घटना है. और इसका तुक क्या है? परमेश्वर होने के कारण वह जन्म और मृत्यु में बंधा नहीं है, फिर भी वह मरा. और यह अत्यंत आवश्यक है. उसके अपने लिए नहीं, परन्तु उन सबके लिए, जिन्हें वह स्वतंत्रता प्रदान करना चाहता था. उसकी मृत्यु सिर्फ उसकी मृत्यु नहीं थी, वह संसार के सब लोगों की मृत्यु थी6. उसका पुनरुत्थान सिर्फ उसका पुनरुत्थान नहीं था, वह संसार के सब लोगों का पुनरुत्थान था7. मनुष्य तो सिर्फ खुद के लिए ही मर सकता है, परन्तु परमेश्वर सबके लिए यह कर सकता है. मनुष्य तो पुनरुत्थान पा भी नहीं सकता है, परन्तु परमेश्वर यह सबके लिए उपलब्ध कर सकता है. मसीह के इसी मृत्यु तथा पुनरुत्थान में ही संसार के सब लोगों की स्वतंत्रता निहित है.

जब एक मनुष्य यीशु मसीह के इस कार्य पर विश्वास करता है तो वह नया जन्म प्राप्त करता है. उसकी एक नई शुरुआत होती है. दरअसल इस नये जन्म का अर्थ ही है कि पुराने से उसका नाता टूट चुका है और नई बातों की शुरुआत हो चुकी है. और यह तब तक संभव नहीं है जबतक वह मरकर जी न उठे8. लेकिन यीशु पर विश्वास के कारण यह संभव हो जाता है. ऐसा कैसे हो सकता है? दरअसल, परमेश्वर की दृष्टी में, यीशु मसीह जब मर गया तो संसार के सबलोग उसके साथ मर गए, लेकिन जो यीशु पर विश्वास करते हैं वे उसका लाभ अपने जीवन में ग्रहण करते हैं. उसी प्रकार यीशु मसीह का पुनरुत्थान हुआ तो उसके साथ संसार के सब लोग जी उठे, परन्तु विश्वास करने वाले ही इस पुनरुत्थान का लाभ उठा सकते हैं. एक विश्वास करने वाला व्यक्ति वास्तव में मसीह के साथ मरकर जी उठा है. इसी घटना को ही उसका नया जन्म कहा जाता है. इस आधार पर प्रत्येक विश्वास करने वाला मनुष्य स्वतंत्रता को प्राप्त कर चुका है. परन्तु मरने और जीने की यह घटना उसके शरीर में नहीं हुई इसलिए पता नहीं चलता. परन्तु यह हुई जरूर है- उसके भीतर, बहुत गहरे, उसकी आत्मा में हुई है. आत्मिक रूप से, यीशु पर विश्वास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र हो चुका है. यही सत्य है.

यीशु मसीह जिन यहूदियों से बातें कर रहे थे उन्होंने किसी हद तक उस पर विश्वास किया था9. हालाँकि, उनका विश्वास उसके पहचान के एक अंश पर था. उनको यह विश्वास हुआ था कि यही मसीह है. परन्तु उनका यह विश्वास उनको स्वतंत्रता दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं था. क्योंकि इतने में वे मृत्यु से गुजरकर जीवन में नहीं प्रवेश कर पाए थे. उनके लिए आवश्यक था कि वे अपने विश्वास में बने रहते और उसको मुकम्मल करते. अर्थात, उन्हें इंतजार करना था कि मसीह मरकर जी उठे और उसपर भी विश्वास करते. यीशु मसीह उनको इसी बात के लिए तैयार करना चाहते थे. परन्तु वे राज़ी नहीं हुए और थोड़ी देर में ही अपने विश्वास को खो बैठे, यहाँ तक कि यीशु को मारने के लिए उन्होंने पत्थर भी उठा लिया10. वे नया जन्म पाने से चूक गए, और इस तरह स्वतंत्रता से भी.

शुभ समाचार यह है कि आज जब कोई यीशु के इस कार्य पर विश्वास करता है और उसकी प्रभुता का अंगीकार करता है तो वह नया जन्म पाता है. वह स्वतंत्रता को भी प्राप्त करता है, क्योंकि पुत्र (मसीह) उसे सचमुच स्वतंत्र कर देता है. इस सत्य पर विश्वास करके वह सत्य को जानने का पहला और सबसे बड़ा कदम उठा लेता है.

परन्तु मनुष्य सिर्फ आत्मा नहीं है, उसके पास शरीर भी है, मन भी है. उसके लिए आवश्यक है कि इस स्वतंत्रता को वह अपने मन के आकाश में अनुभव करे और साथ ही शरीर की भूमि में भी. जो आत्मा में उपलब्ध है वह शरीर तक उपलब्ध हो जाना चाहिए. एक व्यक्ति आत्मा में स्वतंत्र हो सकता है और उसी समय शरीर और मन में बंधा रह सकता है. परन्तु यदि वह आत्मा में स्वतंत्र है तो उसकी स्वतंत्रता शरीर तक भी आ सकती है. और इसके लिए उसे स्वयं ही प्रयास करना होगा.

आत्मा मनुष्य की अंतरतम स्थिति है. मन तो शरीर और आत्मा के बीच में डोलता है. यदि वह उस स्वतंत्रता को अनुभव करना चाहता है तो उसे अपने भीतर प्रवेश करना होगा और वहां तक पहुंचना होगा जहाँ स्वतंत्रता निहित है. स्वतंत्रता बाहर से नहीं आती है. इसी भीतर जाने के क्रम में सत्य को जानने का दूसरा कदम शुरू होता है.

भीतर जाने के क्रम में सबसे पहले मन से सामना होता है. यह मन कई बार बाधा बनकर खड़ा हो जाता है. यही मनुष्य को धोखा भी देता है. यह मन सत्य को तर्क से समझने का प्रयास करता है. और समझ भी जाता है. लेकिन यहीं भ्रम भी उत्पन्न होता है. भ्रम की स्थिति में मनुष्य और भीतर जाने का प्रयास छोड़ देता है. वह आत्मा तक पहुँच नहीं पाता और स्वतंत्रता के अप्रतिम अनुभव से वंचित रह जाता है. यह मन एक चौकीदार की तरह भीतर जाने के सारे रास्ते बंद कर देता है और स्वयं द्वार पर खड़ा हो जाता है. वह भीतर जाने वाले से तर्क वितर्क करता है और भीतर जाने वाला भी उसी चौकीदार को सारी बातें समझाकर लौट जाता है. जबतक भीतर प्रवेश नहीं होगा तबतक स्वतंत्रता भी अनछुई ही रहेगी, क्योंकि वह भीतर ही है. उसके लिए इस मन का समाधान करना ही होगा. उस चौकीदार को सुलाना ही होगा. तभी जाकर भीतर प्रवेश संभव होगा. उससे संघर्ष करके भीतर नहीं जाया जा सकता क्योंकि वह शरीर से अधिक शक्तिशाली है.

उस मन को सुलाने का उपाय यह है कि उसे बातें करके थका दिया जाए. एक ही सत्य को उसे इतनी बार सुनाया जाये कि वह थककर शांत हो जाये और दुबारा बाधा न बने. इसी प्रयास को पवित्रशास्त्र ध्यान की संज्ञा देती है.

हिंदी भाषा में ध्यान शब्द का अपना ही विशिष्ट अर्थ है. परन्तु पवित्रशास्त्र अपनी मूल भाषा इब्रानी में ध्यान के लिए जो शब्द उपयोग करती है वह है- हगाह11. यह एक बहु आयामी शब्द है तथा हिंदी के अर्थ से अलग अर्थ प्रगट करती है. जहाँ हिंदी में ध्यान शब्द मौन की ओर ले जाता है वहीँ हगाह बोलने के लिए प्रेरित करती है. लेकिन इसमें मौन होने का भी अर्थ निहित है. हगाह शब्द मोटे तौर पर चार क्रियाकलापों को प्रगट करता है- 1) चिंतन करना 2) कल्पना करना 3) बडबडाना तथा 4) दहाड़ना. ये सारे कार्य मनुष्य को भीतर प्रवेश करने में सहायता करते हैं, बशर्ते उन्हें सही ढंग से किया जाए. ये मनुष्य के मन को बाधक से साधक में बदल देते हैं. ये ही सत्य को जानने के माध्यम हैं. स्वतंत्रता की अनुभूति के लिए ध्यान परमावश्यक है.

ध्यान के चारों क्रियाकलापों का केंद्र बिंदु मसीह और उसके कार्य से उत्पन्न, उद्घाटित तथा उपलब्ध स्वतंत्रता है, जिनका वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं. अब हम उन क्रियाकलापों की एक एक करके चर्चा करेंगे ताकि उन्हें व्यवहारिक रूप में उपयोग में लाया जा सके.

चिंतन करना

चिंतन करना मन को समझाने का एक प्रयास है ताकि वह बाधा बनकर खड़ा न रहे. मन हमेशा तर्क करता है. चिंतन में मन की इसी तर्कशक्ति को संबोधित किया जाता है. मनुष्य को इस विषय पर चिंतन करना चाहिए कि मसीह ने उसकी स्वतंत्रता का क्या उपाय किया. कैसे वह स्वतंत्रता उस तक पहुंची है तथा उस स्वतंत्रता की अनुभूति होने पर कैसी स्थिति होगी. वह पाप से, संसार से तथा अपने आप से स्वतंत्र होने पर कैसी स्थिति में होगा. इस चिंतन में उसे यह ध्यान रखना होगा कि वह इस स्वतंत्रता की स्थिति को एक आशा के रूप में न देखे. आशा का सम्बन्ध तो भविष्य से होता है परन्तु ध्यान का सम्बन्ध वर्तमान से और कुछ भूतकाल से है. इस सोच विचार में यह स्पष्ट होना चाहिए कि कार्य पहले ही संपन्न हो चुके हैं. मसीह ने उनको पहले ही निपटा दिया है. यहाँ तक कि स्वतंत्रता भी उसे वास्तव में प्राप्त हो चुकी है (और वास्तव में आत्मा में ऐसा ही है.) उसे समझना होगा कि स्वतंत्रता प्राप्त करना उसका लक्ष्य नहीं है, वह तो उसे नए जन्म के साथ ही प्राप्त है. चिंतन की इन बातों का आधार पवित्रशास्त्र है. पवित्रशास्त्र सत्य को लिखित रूप में प्रगट करता है. हमारा चिंतन उसी सत्य को हमारे मन के लिए उपलब्ध कर देता है.

इस चिंतन के क्रम में जो समस्या आती है वह मनुष्य का पुराना अनुभव है, जो उसके शरीर के साथ जुड़ा होता है. शरीर में बंधे होने के कारण उसके अनुभव दासत्व के ही होते हैं. अपने भूतकाल के आधार पर वह तुरंत ही निष्कर्ष निकाल लेता है कि वह अभी स्वतंत्र नहीं है. उसकी आदतें, कार्य, व्यसन, स्वभाव तथा व्यवहार तुरंत ही उसकी सोच को गुलामी के प्रति पुख्ता करती हैं. फिर निष्कर्ष यही होता है कि उसे स्वतंत्रता चाहिए, जो उसे प्राप्त करनी होगी. जब तक यह सोच कायम रहती है मनुष्य स्वतंत्रता की अनुभूति नहीं कर सकता.

चिंतन का मूल यह है कि उसे स्वतंत्रता प्राप्त हो चुकी है. यही बात उसे अपने आप को समझानी है. इसके विरुद्ध उठते सारे विचारों, अनुभवों तथा आदतों को नकारकर इस निश्चयता को हासिल करना है कि स्वतंत्रता उसके लिए भविष्य की बात नहीं है बल्कि वर्तमान का सत्य है. उसे गुलामी के अनुभवों तथा अपराधबोध पर विचार करना छोड़ कर आज़ादी के बाद की अवस्था पर केन्द्रित होना पड़ेगा. उसे इस बात का बोध करना होगा कि उसकी पुरानी आदतें, स्वभाव तथा सोच मसीह के साथ मर चुके हैं. अब वह उसके पुनरुत्थान के द्वारा एक नई अवस्था में पहुँच चुका है. उसके जीवन से संघर्ष समाप्त हो चुका है. वह आज़ाद है.

ध्यान का यह पहला चरण अत्यंत महत्वपूर्ण है और बाकि चरण इसी पर निर्भर हैं. यहीं पर मेहनत लगती है. मन को समझाना इतना सरल नहीं. वह विरोध में तर्कों का पहाड़ खड़ा कर देता है. इसके लिए मनुष्य को चाहिए कि वह एक सही माहौल का चुनाव करे. एक ऐसा माहौल जिसमें गुलामी की अवस्था की चर्चाएँ न हों पर आज़ादी की ही गूँज सुनाई दे. संगीत भी वह वही सुने जो उसे आज़ादी का बोध कराए. यदि माहौल नकारात्मक होगा तो उसके सारे चिंतन हवा हो जायेंगे. वह ऐसी ही बातों को सुने और पढ़े जो उसके चिंतन को मजबूत करती हैं. वह पवित्रशास्त्र से अपनी स्वतंत्रता की कथा पढ़े और ऐसे संदेशों को सुने और पढ़े जो उसकी चिंतन की दिशा में हों.

कल्पना करना

मनुष्य को यह काबिलियत दी गई है कि वह कई बातों की कल्पनाएँ कर सकता है. परन्तु यह क्षेत्र आम तौर पर पूरी तरह अप्रशिक्षित रहता है. संसार की शिक्षा प्रणाली में कल्पना करने का कोई स्थान ही नहीं है. इसका नतीजा होता है कि मनुष्य की कल्पनाएँ प्रायः नकारात्मक ही होती हैं और मनुष्य अंधकार में ही रह जाता है. परन्तु परमेश्वर ने, जिसने मनुष्य को यह शक्ति दी है, ध्यान के लिए कल्पना करने की युक्ति दी है. ये कल्पनाएँ चिंतन पर ही आधारित होनी चाहिए. मनुष्य अपनी कल्पनाओं में यह देखे कि वह स्वतंत्र है. वह अपने पुराने स्वभाव, व्यसनों तथा आदतों से स्वतंत्र हो चुका है. वह देखे कि उसमें गुलामी के सभी आमंत्रणों का इंकार करने की पूरी शक्ति है और वह इंकार भी कर रहा है. अपनी कल्पना में वह यह भी देखे कि मसीह के साथ वह भी जी उठा है. उसका स्वभाव बदल चुका है. अब वह पुराना व्यक्ति नहीं रहा बल्कि एक नए व्यक्ति में बदल गया है. अपनी कल्पना में उसे विजयी होना सीखना पड़ेगा. अपने कल्पना में उसे आज़ादी की सांस लेनी होगी.

मन जितना शब्दों की भाषा समझता है उससे ज्यादा चित्रों तथा दृश्यों की भाषा समझता है. शब्दों से समझाने के साथ साथ यह भी जरूरी है कि मन से चित्रों और दृश्यों की भाषा में बातें की जाएँ. बाहर तो अच्छे चित्र (स्वतंत्रता के चित्र) नहीं मिलते, और न ऐसे दृश्य उपलब्ध हैं, इसलिए अपनी कल्पना में ही इनकी सृष्टि करनी होगी और मन को दिखाना होगा. फिर भीतर के द्वार खुलने लगते हैं.

बडबडाना

हगाह शब्द बोलने के लिए प्रेरित करता है. मनुष्य को चिंतन और कल्पना करके मौन नहीं हो जाना है बल्कि बडबडाना भी है. कई बार तो मन शब्दों में सारी बातों को समझ तो जाता है लेकिन भीतर का रास्ता नहीं खुलता. बडबडाना उस रास्ते को खोलता है. यह मन को भेदता हुआ अंतरतम में प्रवेश करता है. और यह बडबडाना यूँ ही नहीं है. यह उसी चिंतन की स्वीकारोक्ति है जो उसने मन में की थी. उसके शब्द उसके चिंतन के अनुकूल होने चाहिए. उसे शब्दों में अंगीकार करना चाहिए कि वह स्वतंत्र है, उसमें गुलामी का कोई प्रभाव नहीं है. उसे कहना चाहिए कि जिन भी व्यसनों का शिकार वह था वे टूट चुके हैं. वह संसार और पाप से छूट चुका है. मसीह की मृत्यु ने उसे इन बातों से पूरी तरह छुड़ा लिया है. उसके पुनरुत्थान ने उसको एक नया स्वभाव दे दिया है जो पूरी तरह परमेश्वर के अनुकूल है.

इस तरह के अंगीकार दूसरों के सामने नहीं किये जाते. इन्हें तो अपने आप में बडबडाना पड़ता है. बडबडाना इतना हो कि अपने कान सुन सकें. दरअसल यह इन्द्रियों को भी ध्यान में शामिल करने की प्रक्रिया है. आँखों से तो हम वही देख सकते हैं जो संसार में हैं. बाहर के नकारात्मक दृश्यों को हम बदल नहीं सकते. इसलिए कल्पना के द्वारा ही सत्य के दृश्य उत्पन्न करके देखते हैं. परन्तु कानों के लिए दूसरा उपाय किया जा सकता है. मनुष्य खुद ही बोल कर और सुनकर सत्य के माहौल में रह सकता है. सत्य की स्थिति का अंगीकार उसके लिए उचित माहौल बना देता है. वह उन्हीं बातों को सुन रहा होता है जो उसके चिंतन से मेल खाती हैं.

प्रार्थना

सत्य के साक्षात्कार में प्रार्थना का भी अनन्य महत्त्व है. सच्ची प्रार्थना व्यक्ति को शरीर से मोड़ कर आत्मा की ओर उन्मुख करती है. मनुष्य जो अबतक शरीर का आदी था वह आत्मा के प्रति सचेत होने लगता है. परमेश्वर आत्मा है. उससे सम्बंधित बातें भी आत्मिक ही हैं. सत्य भी आत्मिक है. जब एक व्यक्ति ध्यानपूर्ण प्रार्थना के लिए स्वयं को समर्पित करता है तो वह स्वयं आत्मिकके लिए उपलब्ध हो जाता है. उसकी चेतना का विस्तार हो जाता है. सत्य से आमना सामना हो जाता है. जिन बातों को उसने पढ़ा था या सुना था वे अब सजीव हो जाती हैं. प्रार्थना एक व्यक्ति को नम्र बनाती है. प्रार्थना परमेश्वर को नहीं परन्तु व्यक्ति को बदलती है. हम प्रभु यीशु को सदा प्रार्थना में रत देखते हैं. प्रार्थना में लीन होने के कारण आत्मिकउसके लिए सर्वदा उपलब्ध था, या कहना चाहिए वह आत्मिकके लिए सर्वदा उपलब्ध था. एक सच्चे साधक को अपना भरपूर समय ध्यानपूर्ण प्रार्थना में बिताना चाहिए. मनुष्य सिर्फ पाठक या श्रोता ना रहे. वह मात्र एक तार्किक प्राणी नहीं है. वह एक आत्मिक प्राणी है. उसे ध्यानपूर्ण प्रार्थना के द्वारा आत्मा की गहराई में गोते लगाना जरूरी है. इसके बिना सत्य से साक्षात्कार हो ही नहीं सकता.

जब ये कार्य सावधानीपूर्वक किये जाते हैं तो एक निश्चित समय पर मन की बाधा पार हो जाती है. मन बाधक से साधक में बदल जाता है. भीतर प्रवेश हो जाता है. और वहीँ पर सम्पूर्ण व्यक्तित्व स्वतंत्रता की रौशनी में नहा जाता है. परन्तु इस अवस्था को कायम रखने के लिए ऊपर के सभी क्रियाकलापों को दुहराते रहना आवश्यक है.

इस अवस्था के बावजूद स्मृति में कारण दासत्व के समय की घटनाएँ पुनरावृत्ति के लिए आती हैं. वे मन के द्वार पर दस्तक देती हैं. मनुष्य को पुराने समय और घटनाओं की याद दिलाती हैं. इसी से निपटने के लिए ध्यान का अगला चरण काम आता है.

दहाड़ना

दहाड़ना धीरे-धीरे नहीं होता. यह आक्रमण का स्वर है. यह विजय की घोषणा है. जब कभी स्मृतियाँ मन पर दस्तक दें, मनुष्य को दहाड़ना चाहिए. उन सभी पुरानी बातों पर विजय की घोषणा करनी चाहिए. उनके सामने कमजोर पड़ने का कोई अर्थ नहीं है. हुंकार जरूरी है. अपने सारे चिंतन को जुबान पर केन्द्रित करके जय घोष करना उन सभी उठते-गिरते पुराने आदतों और व्यसनों को दुम दबाकर भागने पर मजबूर कर देता है.

दहाड़ना चिंतन को प्रभावी करने की एक युक्ति है. इसलिए यह चितन की ही उत्पत्ति है. यदि चिंतन नहीं है तो दहाड़ना खोखला है. इसलिए मनुष्य को अपना चिंतन मजबूत कर लेना चाहिए. स्वतंत्रता में जीना उसका हक़ है.

जब मनुष्य भीतर प्रवेश कर जाता है तभी उसे उस सत्य की अनुभूति होती है जो शब्द बनकर उसके मानसपटल पर पड़े थे. ऐसा लगता है जैसे सुबह का सूरज उग आया. पथिक अपनी मंजिल पर पहुँच चुका है. अब तो सर्वत्र आनंद छाया हुआ है. उसका जीवन परमेश्वर की सहभागिता में डूब जाता है. वहां कोई गुलामी नहीं है. वहां यात्रा का अंत है.

इस लेख में हमने सत्य को जानने की प्रक्रिया को स्वतंत्रता पर लक्ष्य करके प्रस्तुत किया है और सत्य को भी अधूरे ढंग से लिखा है. दरअसल सत्य को लिखा नहीं जा सकता. लेकिन प्रयास यह है कि सत्य को जानने का तरीका पाठकों के लिए उपलब्ध हो जाए. यदि वे उसके एक पहलु में अपनी पहुँच बना सकते हैं तो उसी तरीके से उसके बाकि पहलुओं में भी पहुँच बना सकते हैं. सत्य से साक्षात्कार एक दिन में होने वाली घटना नहीं है. यह कई परतों में होता चला जाता है. हमारी प्रार्थना है कि आप सत्य की गहराई में उतरते चले जाएँ.

प्रिय पाठक, हम विश्वास करते हैं कि सत्य को जानना की यह अंतिम कड़ी आपके लिए लाभदायक सिद्ध हुई है. फिर भी हम आपसे आग्रह करते हैं कि इसकी सम्पूर्णता को आत्मसात करने के लिए सभी कड़ियों को पुनः पढ़ें.


1मरकुस 10:27
2मीका 5:2
3कुलुस्सियों 1:16
4कुलुस्सियों 1:17
5इब्रानियों 1:3
62 कुरिन्थ 5:14, कुलुस्सियों 3:3
7कुलुस्सियों 3:1
8इफिसियों 2:5
9युहन्ना 8:30-31
10युहन्ना 8:31-59
11यहोशु 1:8