सत्य को जानना-5

सत्य को जानना-5

तुम सत्य को जानोगे और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा. (युहन्ना 8:32)

यीशु मसीह के कथन में तीन मुख्य शब्द थे- सत्य, ज्ञान तथा स्वतंत्रता. पिछले अंकों में हमने सत्य तथा ज्ञान पर जोर दिया था. इस अंक में हम स्वतंत्रता पर बातें करेंगे. सत्य के ज्ञान का स्वाभाविक प्रतिफल है -स्वतंत्रता. और यदि स्वतंत्रता नहीं है तो सत्य का ज्ञान भी नहीं हुआ है. प्रभु ने यह नहीं कहा था कि सत्य को जान कर स्वयं को स्वतंत्र कर लो. उसने कहा था कि सत्य को जानो और सत्य तुम्हें स्वतंत्र कर देगा. इस स्वतंत्रता तक पहुँचने के लिए सत्य से गुजरना परमावश्यक है. परन्तु स्वतंत्रता की भी समझ होनी आवश्यक है.

स्वतंत्रता

जिन यहूदियों से यीशु मसीह बातें कर रहे थे उनको स्वतंत्रता की समझ ही नहीं थी. उनकी दृष्टी सांसारिक थी. वे राजनितिक दासत्व और स्वतंत्रता को समझते थे. यीशु मसीह आत्मिक बातें कर रहे थे. इसलिए वे उसकी बातें नहीं समझ पाए, बल्कि उल्टा विरोध करने लगे1. कई बार हमलोग भी स्वतंत्रता को नहीं समझ पाते. क्योंकि हम लोग भी दासत्व को नहीं समझ पाते. कई बार तो ऐसा होता है कि लोग गुलाम ही रह जाते हैं पर यह सोचते हैं कि वे स्वतंत्र हैं. इसलिए इस स्वतंत्रता के मायने समझना बहुत आवश्यक है. यीशु मसीह तो इस विषय पर विस्तार से चर्चा करना चाहते थे, परन्तु लोगों के विरोध करने के कारण कर नहीं पाए. चेलों ने भी गुप्त में उससे इस विषय पर नहीं पूछा इसलिए वे उन्हें भी नहीं बता पाए. इसलिए जितना भीड़ के विरोध के बीच में कहा जा सकता था उतना उन्होंने कह दिया. अपनी बात की सार्थकता प्रगट करने के लिए जो कहा जा सकता था उन्होंने कह दिया. भीड़ तो कह रही थी- हम किसी के गुलाम नहीं हैं, तू किस स्वतंत्रता की बात करता है? उसने उत्तर दिया जो पाप करता है वह पाप का गुलाम है2. और तुम पाप करते हो इसमें कोई दो राय नहीं. तुम पाप के दास हो, तुम्हें स्वतंत्रता की आवश्यकता है. मैं ने जो कुछ कहा है वह सोच समझकर कहा है. स्वतंत्रता तो तुम्हें चाहिए! लोग कह रहे थे हमें कोई स्वतंत्रता नहीं चाहिए. जो चाहिए थी वो हमें मिल चुकी. पर यीशु मसीह समझा रहे थे कि तुम्हें अब भी स्वतंत्रता चाहिए. लोगों को पता ही नहीं था कि उन्हें क्या चाहिए. ऐसे में भला उन्हें दिया भी कैसे जा सकता है? यदि दे भी दिया जाये तो उसका मूल्य वे नहीं समझेंगे. यह तो सूअर को मोती देने के सामान होगा. वह उसे कीचड़ में मिला देगा और पलट कर देने वाले पर हमला भी कर देगा. इसी कारण यीशु मसीह उन्हें और अधिक नहीं कह पाए और उन्हें स्वतंत्रता भी नहीं दे पाए. बस उन्होंने इतना कहा कि सिर्फ पुत्र ही तुम्हें स्वतंत्र कर सकता है3.

स्वतंत्रता से यीशु मसीह का आशय केवल पाप से स्वतंत्रता नहीं था. स्वतंत्रता में और भी बहुत कुछ समाया हुआ है. पाप से स्वतंत्रता तो उसका मात्र एक पहलू है. प्रभु यीशु उन बातों को वहां नहीं कह पाए परन्तु एक चेला है जो इन बातों पर विस्तार से चर्चा करता है. वह यीशु के साथ नहीं रहा था. परन्तु उसने पवित्रात्मा के साथ बहुत समय बिताया और पवित्रात्मा ने उस पर इन बातों को प्रगट किया. उसका नाम पौलुस है.

स्वतंत्रता का आशय पाप से स्वतंत्रता, संसार से स्वतंत्रता, रीति-रिवाजों से स्वतंत्रता तथा अपने आप से स्वतंत्रता से है. यदि एक व्यक्ति को स्वतंत्रता प्राप्त हो जाए तो वह अपनी सीमाओं से, जो उसको बांधती हैं , परे जा सकता है. यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें कोई बंधन नहीं है. यह अवस्था मृत्यु के सामान है. मृत्यु होने पर एक व्यक्ति लगभग सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है. प्रेरित पौलुस स्वतंत्रता को मृत्यु के साथ जोड़ता है. स्वतंत्रता तब तक नहीं आ सकती जबतक मृत्यु न हो जाए. परन्तु यदि मर जाने पर ही स्वतंत्रता मिलते तो उस स्वतंत्रता का क्या लाभ है? फिर तो उस स्वतंत्रता को ढूंढना मृत्यु को ढूंढना है! भला इस संसार में कितने लोग हैं जो मृत्यु ढूंढते है? लोग तो जीवन ढूंढते हैं. और यदि मृत्यु होने से स्वतंत्रता मिल ही जाती है तो उसे ढूँढने की आवश्यकता ही क्या है? मृत्यु तो आती ही है- ढूंढो या न ढूंढो. फिर तो मृत्यु के साथ मनुष्य स्वतः ही स्वतंत्र हो जायेगा!

संसार में हम मृत्यु को कार्य करते हुए देखते हैं. लेकिन जिस प्रकार की मृत्यु हम देखते हैं वह स्वतंत्रता को लाने के लिए अपर्याप्त है. परन्तु स्वतंत्रता के लिए मृत्यु जैसी ही दशा में जाना पड़ता है. इसलिए हमने शुरू में ही कह दिया कि यह मृत्यु के समान की अवस्था है. इस संसार में जितने भी धर्म हैं वे मृत्यु के इर्द-गिर्द ही बने हैं. मृत्यु और उसके बाद की अनिश्चितता आरम्भ से मनुष्य को विचलित करती आई है. परन्तु केवल प्रभु यीशु मसीह ही है जिसने मृत्यु के उस पार को हमारे लिए उपलब्ध किया है. यह उसने अपनी मृत्यु और पुनरुत्थान के द्वारा किया है. प्रभु यीशु मसीह की मृत्यु केवल उसकी मृत्यु नहीं थी. उसकी मृत्यु संसार के सब लोगों के लिए हुई यह तो हम सब जानते हैं परन्तु भेद यह है कि उसके साथ सब मर गए4. यही मृत्यु सबको स्वतंत्र कर सकती थी.

पाप से स्वतंत्रता

परमेश्वर के साथ निरंतर सहभागिता के लिए पाप से स्वतंत्र होना अनिवार्य है. प्रभु यीशु की मृत्यु इस प्रकार की स्वतंत्रता को लाती है. पाप से स्वतंत्रता का अर्थ पापों से क्षमा पाने मात्र से नहीं है. यह उससे बहुत अधिक है. पापों से क्षमा पाने का अर्थ तो उसके कुप्रभाव से मुक्त हो जाना है. उसके कारण मिलने वाले दंड से मुक्त होने से है. जब एक पापी क्षमा पाता है तो परमेश्वर उसके पापों का दोष उस पर नहीं लगाता. परन्तु क्षमा पाने के बावजूद एक व्यक्ति बार-बार पाप में पड़ सकता है. इसका कारण यह है कि पाप उस मनुष्य के चित्त में बसा हुआ है5. यह उस प्रकार का मनुष्य है, जो तार्किक रूप से तो यह समझता है कि पाप करना उचित नहीं, वह उसके सारे परिणामों तथा विश्लेषणों को भी समझता है और चाहता भी है की इन बातों से दूर रहे परन्तु जब नौबत आती है तो वह पाप में पड़ ही जाता है. प्रेरित पौलुस बताते हैं की ऐसी अवस्था में उसका करने वाला वह व्यक्ति नहीं बल्कि पाप है जो उसमें बसा हुआ है. पाप उसे जो चाहता है करवाता है और वह सबकुछ जानते समझते हुए भी खुद को रोक नहीं पाता. वह वास्तव में पाप का गुलाम है. पाप से स्वतंत्रता का अर्थ इसी गुलामी से स्वतंत्र होने से है. अर्थात ऐसी अवस्था जिसमें उसका तार्किक मन और क्रियाशील मन दोनों एक हो जाएँ. उसके क्रियाशील मन में पाप का कोई प्रभाव न रह जाए. मनुष्य के भीतर कोई द्वंद्व न रह जाए. वह स्वतः ही धार्मिकता के मार्ग में चले.

जब तक सत्य का ज्ञान मनुष्य के तार्किक मन मात्र तक पहुँचता है तब तक द्वंद्व आता ही है. क्योंकि वह ज्ञान मनुष्य की तर्क बुद्धि को तो मना पाने में सफल हो जाता है लेकिन उसके क्रियाशील मन को रोक नहीं पाता है. दोनों प्रकार के मन आपस में संघर्ष करते हैं और अंततः क्रियाशील मन ही विजयी होता है. तार्किक मन अपने तर्क से उसको मना नहीं पाता है क्योंकि वह पाप का गुलाम है. इस तरह मनुष्य द्वारा अर्जित ज्ञान व्यर्थ रह जाता है. मनुष्य को बस इतना भ्रम रह जाता है कि वह सत्य को जानता है. परन्तु जब वह ज्ञान उसके भीतर प्रवेश करता है, वह क्रियाशील मन को पाप के बंधन से मुक्त कर देता है. भीतर से जानना पुत्र को सक्रिय कर देता है और वह व्यक्ति को पाप के बंधन से मुक्त करके अपनी शरण में ले लेता है. व्यक्ति का द्वंद्व समाप्त हो जाता है. वह वही करता है जो परमेश्वर को अच्छा लगता है. यीशु मसीह इसी स्वतंत्रता की बात कर रहे थे.

संसार से स्वतंत्रता

संसार में जन्म लेने के कारण मनुष्य स्वभावतः संसार के बंधन में रहता है. यहाँ पाई जाने वाली शिक्षाएं, परम्पराएं और रीति-रिवाज उसके मन में सहज स्थान बना लेते हैं. कई प्रकार के अन्धविश्वास उसको बांध लेते हैं. अपूर्ण ज्ञान पर आधारित बहुत सारी शिक्षाएं मनुष्य को सीमित कर देती हैं6. उसके मन में भय, संदेह और अन्य कुप्रभाव उत्पन्न कर देती हैं. बहुत सी परम्पराएं और रीति- रिवाज कही सुनी अवैज्ञानिक बातों पर आधारित होती हैं. संसार बहुत तेजी से बदल रहा है. यहाँ ज्ञान प्रतिदिन नयी उंचाई छू रहा है. इस कारण किसी समय में उपयोगी परम्पराएं अब अप्रासंगिक हो चुकी हैं. मनुष्य को नियंत्रित करने के लिए गढ़ी गयी कथाएँ अपनी सार्थकता खो चुकी हैं7. मनुष्य की सोच और परमेश्वर की सोच में बहुत अंतर है8. मनुष्यों की दृष्टी में जो बातें बुद्धिमानी जान पड़ती हैं वे परमेश्वर की दृष्टी में मूर्खता ठहरती हैं और परमेश्वर के विचारों और योजनाओं को मनुष्य मूर्खता समझता है9. जब एक व्यक्ति परमेश्वर के वचन की शिक्षा पाता है तो यही सब बातें उसकी समझ के मार्ग में रोड़ा बनती हैं. वह उन शिक्षाओं की पूर्णता को कभी समझ नहीं पाता है फलतः वह अपनी सीमाओं के परे नहीं जा पाता और बंधन में ही रह जाता है. उसकी सोच और समझ पांच इन्द्रियों के परे नहीं जा पातीं. उसका तर्क भी संसार पर आधारित होने के कारण उसको असीमित होने से रोक देता है.

नया जन्म पाने के द्वारा एक मनुष्य आत्मा में संसार से स्वतंत्र तो हो जाता है परन्तु सत्य के ज्ञान के अभाव में व्यवहारिक रूप में संसार और उसकी सीमाओं में ही बंधा रह जाता है. संसार से स्वतंत्र होने के लिए नया जन्म पहली शर्त है. परन्तु सत्य का पूर्ण ज्ञान धीरे-धीरे ही हो पाता है. जैसे जैसे सत्य के ज्ञान की रौशनी मन के अँधेरे कोनों में पड़ती है, वहां छुपे संसार के बंधन विदा होने लगते हैं. इसके लिए दोनों प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है- बाहरी ज्ञान, जो तार्किक बुद्धि को आजाद करे और भीतरी ज्ञान, जो मनुष्य को स्वतंत्रता में क्रियाशील कर दे. यहूदियों ने स्वतंत्रता को अपनी तार्किक बुद्धि के आधार पर ही नकार दिया था इसलिए भीतर स्वतंत्रता आना नामुमकिन था. वे संसार में ही बंधे रह गए. प्रभु यीशु हमें इस बंधन से मुक्त करना चाहते हैं.

अपने आप से स्वतंत्रता

यह स्वतंत्रता का सबसे अहम् पहलु है. यह इतना बारीक है कि मसीही जगत ने इसकी सम्भावना और महत्त्व को नकार ही दिया था. परन्तु पवित्रात्मा सब बातों को प्रगट करने वाला है10. इस संसार में मनुष्य अपने अपने स्वभाव के साथ उत्पन्न होते हैं. संसार में रहते हुए उसका पालन पोषण करते हैं. संसार से मिली शिक्षाएं, परिस्थितियां, दोस्त, समाज इत्यादि उसको आकार देती हैं. इन सबसे एक व्यक्तित्व का निर्माण होता है. हमें उसी व्यक्तित्व को बनाने और निखारने की ही शिक्षा दी जाती है. परन्तु यह व्यक्तित्व मिले जुले स्वभाव वाला होता है. इसमें बुरे और भले स्वभाव मिश्रित पाए जाते हैं. जो व्यक्ति अच्छा कहलाता है उसमें बाहर तो अच्छे स्वभाव का प्रदर्शन रहता है परन्तु भीतर गहरे में बुराइयाँ निवास करती हैं और जो व्यक्ति बुरा कहलाता है उसके बाहरी तथा भीतरी दोनों हिस्सों में बुरे स्वभाव स्थित रहते हैं. अच्छे स्वभाव की बातें भी कहीं न कहीं पाई जाती हैं. एक व्यक्ति जब धर्म की शिक्षा पाता है तो इस व्यक्तित्व से बुराई के प्रदर्शन को रोकना चाहता है. हालाँकि बुराई नष्ट नहीं होती, वह भीतर कहीं दब जाती है. पुराने मनुष्यत्व से छूटने का अर्थ पुराने व्यक्तित्व के बुरे भाग से मुक्त होना नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण पुराने स्वभाव से मुक्त होना है. मनुष्य के मन में यही गफ़लत रह जाती है कि उसे पुराने बुरे स्वभाव से मुक्त होना है. यदि ऐसा होता तो उसके लिए मृत्यु से गुजरना आवश्यक न होता. परन्तु यदि मृत्यु से गुजरा जाए तो सम्पूर्ण पुराना मनुष्यत्व पीछा छोड़ देता है. शरीर की मृत्यु मनुष्य को इससे स्वतंत्र नहीं कर सकती है परन्तु मसीह ने उस मृत्यु को हमारे लिए दूसरे रूप में उपलब्ध किया है. अपने आप से स्वतंत्र होना इस पूरे व्यक्तित्व से स्वतंत्र होना है. प्रेरित पौलुस इसे पुराना मनुष्यत्व कहता है11.

पुराना मनुष्यत्व ही सभी फसाद की जड़ है. यही संसार और पाप के बंधन में बंधा रहता है. इसी को संसार तथा शरीर के अनुभव प्रभावित करते हैं. इसी के इर्द-गिर्द इस संसार का दर्शन-ज्ञान तथा शिक्षाएं लिपटी रहती हैं. इस पुराने मनुष्यत्व को पालने के लिए मनुष्य सब प्रकार का परिश्रम करता है. दूसरे लोग उसे महत्त्व दें, प्यार करें, उसका सम्मान करें इसकी चेष्टा करता है. मैं औरों से अलग हूँ, श्रेष्ठ हूँ, हीन हूँ, विशेष हूँ, योग्य हूँ, अयोग्य हूँ, इत्यादि भावनाओं से परिपूर्ण रहता है. मुझे संसार, मनुष्य, स्वर्ग और सब जगह की अच्छी से अच्छी वस्तुएं प्राप्त हों इसकी जुगत में रहता है. इसी को डर लगता है और लालच भी आता है. वह संसार में होने वाली घटनाओं और परिस्थितियों से चिंता में पड़ता है, परेशान होता है, व्याकुल होता है, दुखी होता है. उसकी ख़ुशी भी बाहर की बातों पर आधारित होती है, और क्षण भर के लिए होती है. जहाँ पर यह मैंअर्थात पुराना मनुष्यत्व रहता है वहां से प्रेम विदा हो जाता है. व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन अपनी परिक्रमा करते हुए ही बीत जाता है. यहाँ तक कि वह परमेश्वर को भी अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ही अपने जीवन में शामिल करता है. बहुत सारे लोग लोग इस डर से परमेश्वर के पीछे आते हैं कि कहीं वह मुझे नरक में न डाल दे, या इस लालच में आते हैं कि इससे मुझे स्वर्ग में जगह मिलेगी या कोई और आशीष मिलेगी. जब तक यह मैंजीवित है तब तक न सच्ची आराधना हो सकती है, न उचित भक्ति, और न सही प्रार्थना ही हो सकती है. जब वह इन कामों को करता है तो स्वार्थ के लिए ही करता है. इस मैंके जीवित रहते प्रेम तो अस्तित्व में ही नहीं आ सकता. इसलिए इस पुराने मनुष्यत्व की मृत्यु आवश्यक है. प्रभु यीशु ने भी अपने पीछे आने वालों से कहा था कि उसके पीछे आने वालों को अपने आप का इनकार करना होगा12. हम आत्मिक मार्ग में अपने आप को ढोकर नहीं ले जा सकते. मृत्यु ही समाधान है!

इस लेख को पढ़ कर आपके मन में कई सवाल उठ रहे होंगे, परन्तु अभी इतना जानिए कि सच्ची स्वतंत्रता तभी आती है जब मृत्यु से गुजरा जाये. और यह स्वतंत्रता शरीर छोड़ देने के बाद ही मिलेगी ऐसा नहीं है. पौलुस ने उस स्वतंत्रता का अनुभव किया था13. और इसकी सम्भावना हमारे लिए भी उपलब्ध की गयी है.

आनेवाले अंक में हम मृत्यु, मृत्यु से गुजरने और उसके बाद मिलने वाली स्वतंत्रता की चर्चा करेंगे.


1युहन्ना 8:33
2युहन्ना 8:34
3युहन्ना 8:36
42 कुरिन्थ 5:14
5रोमियों 7:20
6कुलुस्सियों 2:23
7गलातियों 4:9
8यशायाह 55:8
91 कुरिन्थ 1:20-25
101 कुरिन्थ 2:10, युहन्ना 16:13
11इफिसियों 4:22
12मत्ती 16:24
13रोमियों 7:24-25