सत्य को जानना-4

सत्य को जानना-4

तुम सत्य को जानोगे और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा. (युहन्ना 8:32)

अब तक हमने सत्य की प्रकृति को समझने की कोशिश की है. परन्तु सत्य के विषय हमारी समझ तब तक अधूरी है जब तक कि सत्य से साक्षात्कार न हो जाए. सत्य का साक्षात्कार ही सत्य को जानना है. इस अंक में हम सत्य को जाननेके विषय चर्चा करेंगे.

जाननाया ज्ञान पाना

जाननाया ज्ञान पानाएक भ्रामक शब्द है. जाननाकई प्रकार के होते हैं. एक होता है शाब्दिक ज्ञान. ऐसा ज्ञान जिसमें हम तथ्यों को शब्दों के द्वारा जानते हैं. संसार में समस्त स्कूली शिक्षा या विश्वविद्यालय में दिया जाने वाला ज्ञान इसी प्रकार का है. हमें बचपन से इसी का अभ्यास कराया जाता है. इसी की परीक्षा ली जाती है. हमलोग इसके इतने आदी हो जाते हैं कि यही ज्ञान का एकमात्र तरीका प्रतीत होता है. हमने पिछली बार देखा था कि बाईबल सत्य का शाब्दिक प्रगटीकरण है. जब हम बाईबल का अध्ययन करते हैं तो वहां बिखरी हुई कई बातों को समेटना पड़ता है. वे सारी समेटी हुई बातें मिलकर धर्म-सिद्धांत (Doctrine) बन जाते हैं. लोग उन्हीं धर्म-सिद्धांतों को ही पढ़कर रह जाते हैं और सोचते हैं कि वे सत्य को जान गए. परन्तु यह समझना जरूरी है कि वे सिद्धांत तो सत्य का मात्र शाब्दिक प्रस्तुतीकरण (Representation) हैं. इसके अतिरिक्त अलग-अलग लोग एक ही बाईबल से अलग-अलग सिद्धांत लेकर आते हैं. ऐसी अवस्था में यह जानना कठिन हो जाता है कि कौन सा सिद्धांत सत्य का सटीक प्रस्तुतीकरण है. फिर होता है विवाद, तर्क-वितर्क. अपने सिद्धांत को सच्चा और दूसरे के सिद्धांत को झूठा साबित करने की मुहिम. ये सब बातें शब्दों पर ही आधारित होती हैं. इन सबका परिणाम होता है-झगड़ा और विभाजन और इन प्रक्रियाओं में सत्य कहीं दूर रह जाता है. लोग गुलाम ही रह जाते हैं. वे इसी बात में उलझे रह जाते हैं कि सत्य का सटीक प्रस्तुतीकरण क्या है?

यदि वे सत्य का सटीक प्रस्तुतीकरण जानते भी हैं तो यह कहना गलत होगा कि वे सत्य को जानते ही हैं. इस प्रकार के ज्ञान के लिए यूनानी में एक शब्द का उपयोग किया जाता है: γνῶσις (gnōsis). यह बाहर से जानना है. तर्क, विवेचना, विचार, निष्कर्ष के आधार पर पाया हुआ ज्ञान है. इसमें किसी बातको जानने वाला व्यक्ति उस बातसे परे रह जाता है. विद्यालय और विश्वविद्यालय का ज्ञान इसी श्रेणी में आता है. हमलोगों को भी सत्य का सिद्धांत बताने वाले लोग इसी प्रकार के विद्यालयों या विश्वविद्यालयों से आते हैं. उन्होंने सत्य को बाहर से जाना है, शब्दों में जाना है. इसलिए वे हमें भी मात्र शब्द ही दे सकते हैं. उन शब्दों- सिद्धांतों को पाकर हम यह सोच लेते हैं कि हम सत्य को जान गए. फिर हम उन्हें दूसरे लोगों तक पहुंचा देते हैं. यह प्रक्रिया चलती रहती है और परिणाम होता है -भ्रम, सत्य को जानने का भ्रम. सदियों से यही होता आया है. यह भ्रम इतना शक्तिशाली हो जाता है कि उस व्यक्ति को यह बताना कठिन हो जाता है कि तुम सत्य को अब तक नहीं जानते. क्योंकि तब उसके अहम् को चोट लगेगी और वह इस बात को स्वीकार नहीं कर पाता. इस प्रकार के ज्ञान के लिए उन्होंने बहुत मेहनत की है, समय लगाया है और इसके साथ जुड़ी हैं -डिग्रियां, विशेषण, उपनाम, पद, प्रतिष्ठा. आम लोगों ने तो ऐसी कोई मेहनत नहीं की. फिर दोनों में फ़र्क होगा ही- एक जिसने सत्य का अध्ययन किया है और दूसरा जिसने नहीं किया. तो किसने सत्य को जाना? वही न जिसने उसका अध्ययन किया? परन्तु ये सब तो सत्य को जानने से रोकने के बहुत बड़े कारक हैं. ये सब अहम् के पोषक हैं, और जहाँ अहम् है वहां वह सत्य की विकृत छवि प्रस्तुत करता है. इसलिए सत्य को जाननेके लिए इस भ्रम का टूटना अनिवार्य है. सत्य को जानते-जानते तो अहम् भी मिट जाता है. तभी स्वतंत्रता का उदय होता है.

यीशु मसीह इस प्रकार के ज्ञान के विषय नहीं कह रहे थे. उन्होने नहीं कहा कि तुम सत्य का γνῶσις (gnōsis) करोगे और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा. उन्होंने कहा- तुम सत्य का γινώσκω (ginōskō) करोगे और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा. जो यूनानी शब्द वहां उपयोग किया गया है उसका अर्थ है भीतर से जानना. उस वस्तु में समाकर उसे जानना. यह उस ज्ञान से अलग है जिसमें तर्क और निष्कर्ष के आधार पर जाना जाता है. इस ज्ञान में तर्क होना जरूरी नहीं, निष्कर्ष होना जरूरी नहीं. हाँ! इस ज्ञान के साथ-साथ वह भी हो सकता है. और जब तक यह नहीं होता तब तक लोग सत्य को नहीं जानते, केवल उस पर विश्वास करते हैं.

सत्य पर विश्वास

सत्य को मानना और सत्य को जानना दोनों अलग अलग बातें हैं. एक व्यक्ति जिसने इमली खाई है वह जानता है कि इमली खट्टी होती है, परन्तु दूसरा व्यक्ति जिसने इमली कभी नहीं चखा वह नहीं जानता. उसे तर्क से और दूसरे माध्यमों से विश्वास दिलाया जा सकता है कि यह खट्टी होती है. कोई सत्यवादी जिस पर वह भरोसा करता है उसे कह सकता है कि इमली न मीठी होती है, न तीखी होती है, न कड़वी होती है, न नमकीन होती है, न इसका स्वाद कसैला है और न यह स्वादहीन होती है. पर उसमें एक स्वाद है- वही स्वाद जो बच गया, अर्थात खट्टा स्वाद. फिर वह मान लेगा कि इमली खट्टी होती है. लेकिन वह वास्तव में उसका स्वाद नहीं जानता क्योंकि खट्टा भी तो कई प्रकार का होता है. वह उसके स्वाद को बाहर से जानता है. जिसकी बातों को उसने सुन रखा है उसके आधार पर वह भी दूसरे को बता सकता है कि इमली खट्टी होती है. वह उस पर लेख लिख सकता है, उस पर भाषण दे सकता है, परन्तु इमली का स्वाद नहीं जानता.

कल्पना कीजिये कि बहुत सालों पहले धरती पर इमली का एक पेड़ था. जिन्होंने उसका फल खाया वे जानते थे कि इमली का स्वाद कैसा होता है. फिर वह पेड़ नष्ट हो गया. अब ऐसा कोई नहीं जिसने इमली खाई हो. फिर भी उसके पूर्वजों ने उसे बताया है कि इमली खट्टी होती है और यही क्रम कई पीढ़ियों तक चला है. हो सकता है कोई प्राचीन ग्रन्थ मिल जाये जिसमें इमली के विषय वर्णन मिले. उसके आधार पर तो पीढ़ियों बाद के लोग भी तर्क कर सकते हैं कि इमली खट्टी होती है. और मजे की बात यह है कि इमली वास्तव में खट्टी होती है, फिर भी उसके विषय बातें करने वाले लोग नहीं जानते कि वास्तव में इमली का स्वाद कैसा है. फिर भी किसी प्रकार उसे तो समझा भी जा सकता है. दूसरी खट्टी चीज़ें खाकर अनुमान लगाया जा सकता है. फिर भी हर खट्टी चीज़ का स्वाद इमली जैसा नहीं होता. और मान लो साथ में संसार से सभी खट्टी चीज़ें मिट जाएँ तो? फिर तो खट्टासिर्फ शब्द मात्र रह जायेगा. खट्टे के बारे लोग बातें कर पाएंगे पर कभी जान नहीं पाएंगे कि खट्टा कैसा होता है, इमली तो दूर की बात है. हाँ! वे विश्वास जरूर कर लेंगे कि इमली खट्टी है. इस पर शोधपत्र लिखे जायेंगे, इस विषय पर पढाई होगी, डिग्रियां बांटी जाएँगी, कई लोग इमली विशेषज्ञकहलायेंगे पर इमली के विषय जानने वाले लोग नहीं रहेंगे.

सत्य को जानने के विषय भी ऐसा ही है. हो सकता है कोई सत्य का सटीक प्रस्तुतीकरण जानता है. वह उसकी व्याख्या जानता है, उसके धर्म-सिद्धांत अचूक हैं. फिर भी यह हो सकता है कि वह सत्य को नहीं जानता, वह सिर्फ शब्दों को जानता है. सत्य तो अद्वितीय है. किसी दूसरे वस्तु को जानकर सत्य का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता. हालाँकि सत्य तो अब भी उपलब्ध है, यह एक समय उपलब्ध होकर लोप नहीं हो गया. उसे अब भी जाना जा सकता है. उसे उसके मूल स्वरुप में भीतर से जाना जा सकता है. परन्तु इसके लिए शब्दों के ज्ञान की अपूर्णता को स्वीकार करना आवश्यक है.

शब्दों का ज्ञान सहायक हो भी सकता है और बाधक भी हो सकता है. पहला तो शब्दों का ज्ञान भी सटीक होना चाहिए. बहुत सारे सिद्धांतों के बीच में सटीक प्रस्तुतीकरण ढूंढना कठिन हो सकता है, पर असंभव नहीं. दूसरा, उसके साथ यह स्वीकार करना होगा कि इस प्रकार का ज्ञान शब्द मात्र हैं. यदि ये दोनों बातें न हुईं तो सत्य को जानने में शब्दों के ज्ञान से बड़ा बाधक कुछ नहीं होगा.

यीशु मसीह ने सत्य पर विश्वास करने के विषय नहीं कहा. मनुष्य के उद्धार की जो योजना है वह यीशु पर विश्वासया सुसमाचार पर विश्वासपर आधारित है. दोनों एक ही बातें हैं. इसमें एक व्यक्ति को अपने प्रयासों की निरर्थकता को स्वीकार करते हुए उद्धार के लिए यीशु और उसके कार्य पर पूर्ण विश्वास प्रगट करना होता है और स्वयं को उसके भरोसे पर छोड़ देना होता है. इसके लिए पवित्रशास्त्र के सम्पूर्ण धर्म-सिद्धांतों पर विश्वास करना आवश्यक नहीं. यदि ऐसी अवस्था होती तो एक व्यक्ति का तब तक उद्धार नहीं हो पाता जब तक वह सहीआध्यात्मिक केंद्र में जाकर सहीशिक्षा नहीं पा लेता. यह एक कठिन काम है. यदि ऐसा होता तो उद्धार व्यक्ति के कर्म पर आधारित हो जाता. उद्धार पाने के लिए सत्य के उस पहलु पर विश्वास करना आवश्यक है जिसे अनिवार्य किया गया है, सम्पूर्ण पहलुओं पर नहीं. बाकि पहलुओं को जानना तो उद्धार के बाद की प्रक्रिया है. परमेश्वर चाहता है कि सब मनुष्यों का उद्धार हो और वे सत्य को भली भांति पहचान (जान) लें.1 परन्तु यह जानना होगा कैसे

सत्य को जानने के लिए हमें उन लोगों को देखना पड़ेगा जिन्होंने वास्तव में सत्य को जाना (वास्तव में इमली खाई) और उसके विषय लिखा, अर्थात नए नियम के लेखक और यीशु के चेले जिन पर यह प्रगट किया गया. पुराने नियम में तो सत्य मात्र छाया के रूप में ही उपलब्ध था, नए नियम में यह पूर्ण रूप से उपलब्ध है. व्यवस्था तो मूसा के द्वारा दी गयी, परन्तु अनुग्रह और सच्चाई यीशु मसीह के द्वारा पहुंची.2 हमें वे लोग सत्य नहीं सिखा सकते जो उसे मात्र शब्दों में जानते हैं.

जिन्होंने यीशु से सत्य को सीखा उनका सीखना शैक्षिक (academic) या शाब्दिक नहीं था. उनके सामने सत्य को धर्म-सिद्धांत बनाकर नहीं परोसा गया. उनको खोजी बनाकर छोड़ा गया जिसमें प्रश्नों का उत्तर परमेश्वर ने उनके भीतर प्रगट किया. उदाहरण के लिए, हमें बचपन से यह रटाया जाता है कि यीशु परमेश्वर का पुत्र है. परन्तु चेलों के साथ ऐसा नहीं था. उन्होंने एक प्रकार से ढूढ़ निकालाकि जिस व्यक्ति के साथ हम रह रहे हैं वह वास्तव में परमेश्वर का पुत्र है. इस ढूंढ निकालनेमें परमेश्वर ने उनकी सहायता की. यीशु मसीह अपना काम करते जा रहे थे. चेले उनको देखते थे. लोग उनको देखते थे. सबकी अपनी-अपनी राय थी. चेले दोनों तरफ की सुनते थे. यीशु मसीह ने अपने चेलों को छूट दे रखी थी कि वे किसी की भी सुन सकते है, पर चौकसी से. कोई कहता था कि यीशु भरमाने वाला है3, कोई उसे पागल कहता4 कोई उसे मसीह कहता.5 कई तरह की बातें सुनकर चेलों के मन में भी स्वभाविक प्रश्न उठते थे. लेकिन अचानक किसी समय उनके मन में यह प्रगट किया गया कि यीशु वास्तव में परमेश्वर का पुत्र है. यीशु मसीह ने अपने चेलों से पूछा: लोग मुझे क्या कहते है?6 चेलों ने जो भी सुन रखा था बताया. फिर यीशु ने प्रतिप्रश्न किया: तुम मुझे क्या कहते हो? पतरस ने कहा तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है.7 बहुत सारे शोर के बीच में, अनिश्चितता के बीच में, नकारात्मकता के बीच में, शास्त्र-ज्ञान के अभाव में, तार्किक ज्ञान के अनुपस्थिति में, परोसे गए सिद्धांतों के बिना तुम मुझे क्या कहते हो? पतरस के उत्तर आने पर यीशु ने कहा: मांस और लहू ने नहीं परन्तु मेरे पिता ने तुझ पर यह बात प्रगट की है.8 तुझे जो ज्ञान मेरे विषय में हुआ है वह तर्क से नहीं आया, परंपरा से नहीं आया, न तो तुझे ऐसा परोसा गया है. इसमें मनुष्य का हाथ नहीं है पर यह विशुद्ध रूप से पिता के द्वारा प्रगट किया गया है. यीशु परमेश्वर का पुत्र है यह जाननेमें पतरस को एक प्रक्रिया से गुजरना पड़ा, एक क्रांति उसके भीतर हुई. ऐसी ही क्रांति सत्य के हर पहलू को जानने में है. पर हमें तो सब परोस दिया जाता है और हम मान लेते हैं. हमने यात्रा नहीं की, दूसरे के कंधे पर सवार होकर सीधे मंजिल पर पहुँच गए. सत्य से रू-ब-रू कोई और हुआ पर उसके निष्कर्ष को हमने लपक लिया. जबतक यात्रा नहीं होगी तब तक सत्य मात्र एक शब्द बनकर रह जायेगा. न तो हम उस प्रक्रिया से गुजरते हैं और न कभी भीतर की क्रांति होती है. हमारे ज्ञान में मांस और लहू का हाथ रहता है, और परमेश्वर जो उद्घाटित करना चाहता है उससे हम चूक जाते हैं. हमारे ज्ञान मात्र शब्द रह जाते हैं. उनका ज्ञान तो उनको भीतर ज्योतिर्मान (illuminate) कर देता था.

यूनानी में सत्य के लिए उपयोग किया गया शब्द है-  ἀλήθεια (alethia). यह ἀληθής (aléthés) शब्द से आया है. यह दो शब्दों से मिलकर बना है- ἀ, जो नकारात्मक के लिए उपयोग होता है (जैसे हिंदी में ’) और ληθής (léthés) जो λανθάνω ( lanthanó) शब्द से आया है, जिसका अर्थ है -छिपा हुआ, परोक्ष, जो परदे के भीतर है. दोनों मिलकर अर्थ देते हैं-जो छिपा हुआ न हो, अपरोक्ष, जिससे पर्दा हट गया. दिलचस्प यह है कि प्रगट करने (जैसे मत्ती 16:17) के लिए जो यूनानी शब्द ἀποκαλύπτω (apokaluptó) है उसका शाब्दिक अर्थ है- पर्दा हटाना. जब पिता ने पतरस के अन्दर से पर्दा हटाया तो पतरस परदे के भीतर देखने लगा-सत्य को देखने लगा. हमारे भीतर जो पर्दा पड़ा रहता है उसे बाहर का कोई भी व्यक्ति हटा नहीं सकता. कोई भी शब्द, सिद्धांत या उपाय उसे नहीं हटा सकते. सम्पूर्ण शास्त्रीय ज्ञान-मीमांसा, विवेचना, तर्क भी मिला दिए जाएँ तो भी उस परदे को हटाने में असमर्थ हैं. उसे वही हटा सकता है जो हमारे भीतर जा कर हटाने की सामर्थ्य रखता है. जब पर्दा हट जाता है तो भीतर प्रकाश हो जाता है. व्यक्ति उस ज्ञान में नहा जाता है. न कोई शब्द उसको बयां कर सकते हैं और न कोई तर्क और न विरोधी तर्क उसे किसी प्रकार से दबा सकते हैं. सत्य तर्कातीत (beyond reasoning) है. हम उसे वहीं पर जाकर जानते हैं.

पौलुस को जब इस प्रकार का ज्ञान हुआ तो उसने इसे बताने की कोशिश की. उसने इसे गुप्त ज्ञान9 नाम दिया. उसके विषय बताते हुए उसने लिखा कि यह न तो किसी देखी हुई वस्तु जैसा है, और न सुने हुए शब्दों या तर्कों जैसा है और न मन का कोई विचार ही इसकी व्याख्या कर सकता है.10 उसने सम्पूर्ण इन्द्रीय-ज्ञान को नकार दिया. सत्य ज्ञानेन्द्रियों से जाना नहीं जाता. तो फिर कैसे जाना जाता है? यह मन से भी भीतर गहरे में, आत्मा में जाना जाता है और जो उसको प्रगट (apokaluptó) करता है वह है-परमेश्वर का आत्मा.11 पौलुस पर भी यह ज्ञान apokaluptó के द्वारा प्रगट किया गया.12 जब उनके भीतर यह हुआ तो उन्होंने शब्दों में बताने की कोशिश की. पर शब्द अपर्याप्त हैं. उस रहस्योद्घाटन के लिए शब्द ही नहीं बने हैं. जिन्होंने भाषा का विकास किया है उनको रहस्योद्घाटन हुआ ही नहीं! फिर कौन उसके लिए शब्द बनाता? और यदि कोई बनाता भी तो दूसरे उसे समझ नहीं पाते. पौलुस ने जितना संभव था वह ज्ञान पत्रियों में लिख भेजा. लेकिन वह जानता था कि ये शब्द पर्याप्त नहीं हैं. फिर भी शब्द जरूरी थे- उसका आभास देने के लिए. इसलिए साथ में उसने प्रार्थना की- परमेश्वर तुम्हें ज्ञान और प्रकाश की आत्मा दे, तुम्हारे मन की आँखें जोतिर्मय हों कि तुम जान लो….13

जब प्रगटीकरण/ रहस्योद्घाटन (apokaluptó) होता है तो यह भीतर प्रकाश होने के समान है. यह नींद से जाग उठने के समान है.14 यह ऐसा है कि होने से पहले तक धुंधला सा आभास था, थोड़ी सी समझ थी, झीने परदे के उस पार धुंधली आकृति थी फिर अचानक पर्दा फट गया. सबकुछ साफ़-साफ़ हो गया. अंधा पहले तो टटोलता था, चीज़ों को छूकर अपने मन में उनकी आकृतियाँ बनाता था, पर अब उसे आँखें मिल गयीं. वे शब्द जो लिखे गए थे उनके पीछे की वास्तविकता अचानक ही प्रत्यक्ष हो गयी.

पतरस के अनुभव में यह पौ फटने के समान है. मानों अंधेरी रात में दीया लेके चले हैंउसकी धुंधली रौशनी में थोडा बहुत दीख पड़ता है और अचानक पौ फट जाए.15 सब कुछ स्पष्ट हो जाता है.

जब तक हम सत्य पर मात्र विश्वास करते हैं और उसको जानते नहीं हैं, हमारा विश्वास सूचना और तर्क पर आधारित होता है. इस प्रकार का विश्वास प्रभावशाली नहीं होता. जब हम उस विश्वास को काम में लाना चाहते हैं तो वह खोखला साबित होता है. ऐसा विश्वास विरोधी तर्क प्रस्तुत करने पर संदेह में बदल जाता है. कौन सा तर्क सही है इसका निर्णय करना कठिन हो जाता है. उस बीच भी सत्य को हम तर्कों के आधार पर ही ढूंढते हैं. यदि समय पर विरोधी तर्कों को शांत न किया जाए तो संदेह अविश्वास में बदल जाता है. परन्तु जो सत्य को जानता है उसके साथ ऐसा नहीं है. सत्य उसके लिए तर्कों का निष्कर्ष नहीं है. उसके लिए तो सत्य प्रत्यक्ष है. उसके विरुद्ध न तो संदेह काम करता है और न अविश्वास उसे छू सकता है. सत्य को जानना विश्वास में जान फूंक देता है. फिर वह अंधा विश्वास नहीं रहता, उसके लिए तो सबकुछ प्रत्यक्ष है. सत्य को जानना जीवन की भरपूरी के लिए अत्यंत आवश्यक है.

बाईबल तो यह भी बताती है कि इस प्रकार के ज्ञान (ginōskō) के अलावा भी एक और ज्ञान है. यूनानी में इसके लिए शब्द है- οἶδα (eidó). इसका मूल अर्थ है-देखना. अर्थात, ऐसा जानना कि मानों उसे देख रहे हैं. उसे देखे जा रहे हैं. Ginōskō से जो ज्योति जली है वह बुझ नहीं गयी पर निरंतर जल रही है. Ginōskō तो कभी हुआ था पर eidó व्यक्ति को उसी अवस्था में रख देता है. यीशु ने यहूदियों से कहा था- तुमने तो उसे (परमेश्वर को) नहीं जाना (ginōskō): परन्तु मैं उसे जानता (eidó) हूँ. तुम्हारा ज्ञान (gnōsis) तो शब्द मात्र है. तुम ginōskō तक भी नहीं पहुंचे, परन्तु मैं उसे जानता (eidó) हूँ. वहां तक भी जाया जा सकता है. पौलुस ने अपनी पत्री में वहां तक जाने के विषय लिखा हैतुम्हारे मन की आँखें जोतिर्मय हों कि तुम जान (eidó) लो13 परन्तु पहले ginōskō से गुजरना होगा.

चेलों ने सत्य को इसी प्रकार जाना. उन्होंने किसी विद्यालय में व्यवस्थित शिक्षा नहीं पाई. उन्होंने असंगठित (unorganized) रूप में उसका साक्षात्कार किया. विद्यालय और विश्वविद्यालय इस प्रकार का ज्ञान दे ही नहीं सकते. उल्टा हमें तो ज्ञान सजा-संवार कर परोस दिया गया है. चेलों को नहीं परोसा गया था. यह उनके भीतर घटित हुआ. परोसा हुआ ज्ञान हमारे भीतर क्रांति घटित होने से रोकता है. यह जानने का भ्रम देता है. लेकिन जो हमें परोसा गया है उसे पलट भी नहीं सकते. हम उस अवस्था में नहीं जा सकते जहाँ हमें परोसा न गया हो. फिर हम क्या कर सकते है?

नींद से जागना

हम यह कर सकते हैं कि पहले अपने भ्रम को पहचान लें. साथ ही यह भी समझ लें कि सत्य को बाहर से नहीं जाना जा सकता, उसे केवल भीतर से ही जाना जा सकता है. इसका अर्थ है कि व्यक्ति को भीतर की यात्रा करनी होगी. भीतर की जो यात्रा है उसी का नाम ध्यान है. हम उसके वचन पर ध्यान करें- सत्य की उस अभिव्यक्ति पर जो पवित्रशास्त्र में हैं. उसको हम सोचे-विचारें, खुद को उससे जोड़कर देखें, उसके जीवंत अनुभव की कल्पनाएँ करें और पवित्रात्मा जो सत्य का रहस्योद्घाटन करने वाला है, के साथ सहभागिता का समय गुजारें- इस निवेदन और लालसा के साथ कि हम उन शब्दों और सिद्धांतों की वास्तविकता को जानना चाहते हैं. इसमें वक्त लगेगा. मेहनत लगेगी. साधना करनी होगी. अपने अहम् को मिटने देना होगा. फिर एक दिन क्रांति होगी- भीतर. बहुत भीतर. रहस्योद्घाटन होगा, पर्दा फट जायेगा. उसका शोर दूसरों को सुनाई नहीं पड़ेगा. पर उसके साथ कई बंधन टूट जायेंगे. सत्य के जितने पहलुओं का रहस्योद्घाटन होगा उन से सम्बंधित बंधन टूटेंगे और हम यीशु के उस कथन16 की आत्मा को जी पाएंगे.

यह क्रांति संसार के लोगों में नहीं घट सकती, क्योंकि यह इन्द्रिय ज्ञान से परे है. यह उसी के जीवन में घट सकती है जिसने नया जन्म पाया है. उसे परमेश्वर के राज्य को देखने की शक्ति दी गयी है.17 वह शरीर से दृश्य को जान सकता है और आत्मा से अदृश्य को जान सकता है. सत्य को जानने और संसार के मनुष्य के बीच एक खाई है जिसे वह पार नहीं कर सकता. यीशु ने अपनी मृत्यु और पुनरुत्थान के द्वारा उस खाई को पार करने का मार्ग उपलब्ध किया है. बिना उसके सत्य जाना नहीं जा सकता. नया जन्म पाए विश्वासी के लिए असीमित गुंजाईश है. उसके भीतर सत्य को जानने की योग्यता उत्पन्न की गयी है.

यदि नए जन्में लोग सत्य को न जानें तो उनमें और संसार के लोगों में कोई अंतर नहीं दिखेगा. दोनों ही इन्द्रिय ज्ञान से चलेंगे. अपनी बुद्धि और तर्क से चलेंगे. आत्मिक बातें उनके लिए धर्म-सिद्धांत बन जायेंगे. अनंत जीवन उनके लिए धर्म (Religion) बनकर रह जायेगा. उनके अगुवे धर्म-विज्ञानी कहलायेंगे पर उनके शब्द खोखले होंगे. वे सत्य पर विश्वास करेंगे पर उसे जानेंगे नहीं. वे कहेंगे कि हम विश्वास करते हैं पर उनका विश्वास खोखला होगा. वे नींद में पड़े रहेंगे (सत्य को प्रस्तुत करनेवाले शब्दों को दुहराते हुए), बंधन में पड़े रहेंगे, उनमें और मुर्दों में कोई अंतर नहीं रह जायेगा. पौलुस ऐसे लोगों को शारीरिक मनुष्य कहता है.18

हे सोने वाले,
जाग और मुर्दों में से जी उठ;
तो मसीह की ज्योति तुझ पर चमकेगी.19

बाकि अगले अंक में.


11 तीमुथी 2:4
2युहन्ना 1:17
3युहन्ना 7:12
4युहन्ना 10:20
5युहन्ना 7:41
6मत्ती 16:13
7मत्ती 16:16
8मत्ती 16:17
91 कुरिन्थ 2:7
101 कुरिन्थ 2:9
111 कुरिन्थ 2:10
12इफिसी 3:3
13इफिसी 1:17-18
14रोमियों 13:11
152 पतरस 1:19
16युहन्ना 8:32
17युहन्ना 3:3
181 कुरिन्थ 3:1-4
19इफिसी 5:14