सत्य को जानना-3

सत्य को जानना-3

तुम सत्य को जानोगे और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा (युहन्ना 8:32)

पिछले अंक में हमने देखा कि सत्य भौतिक आयाम से परे का है. इस जगत में उसके निरूपण (representation) उसके अस्तित्व को प्रगट करने में असमर्थ हैं. फिर भी हमारे स्तर पर सत्य को समझने के लिए दो साधन दिए गए हैं जिनके विषय हम चर्चा करेंगे. तत्पश्चात सत्य का साक्षात्कार करने की दिशा में हम आगे बढ़ सकते हैं.

प्रथम साधन

शब्द मनुष्य के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. संसार में कई प्राणी हैं जिनसे हमारी कई समानताएं हैं. परन्तु भिन्नताएँ भी है. संसार के बाकि प्राणियों को शब्द नहीं दिए गए, केवल मनुष्य को दिए गए हैं. शब्द वे साधन हैं जिनके माध्यम से हम अपने विचारों को अभिव्यक्त कर पाते हैं. अनुभव के आधार पर शब्द दो प्रकार के हैं. ऐसे अनुभव जो प्रत्येक के लिए समान हैं उनके लिए शब्द, जैसे रंगों के नाम, इत्यादि. ये अनुभव हमारे बाहर के संसार में घटित होते हैं. अपनी इन्द्रियों के द्वारा हम उनका ज्ञान अपने भीतर लेते हैं. परन्तु कई अनुभव ऐसे हैं जो हम केवल व्यक्तिगत रूप से जानते हैं, जैसे-दर्द. यह एक व्यक्तिगत अनुभव है. दर्द की कोई व्याख्या नहीं है. न हम दूसरे के दर्द को अनुभव करते हैं. यह भीतरी अनुभव है. न हम दूसरे के दर्द को जानते हैं, न दूसरे हमारे दर्द को जान सकते हैं. परन्तु दर्दशब्द के द्वारा हम उस अनुभव को व्यक्त करते हैं, जिसे सुनकर दूसरे लोग उसे अपने अनुभव से जोड़ते हैं और समझते हैं. जिसे उस प्रकार का दर्द नहीं हुआ है वह सुनकर भी उसे नहीं समझ सकता. स्त्री को प्रसव पीड़ा होती है. उस पीड़ा को वही स्त्री समझ सकती है जिसने प्रसव पीड़ा का अनुभव किया है. पुरुष उसे कदापि अनुभव नहीं कर सकता. बाकि लोगों के लिए प्रसव पीड़ामात्र शब्द है, परतु उस स्त्री के लिए अनुभव है. प्रसव पीड़ाशब्द का पुरुष उपयोग कर सकता है, उस पर कथाएं, कवितायेँ, लेख लिख सकता है पर उसे कभी जान नहीं सकता है.

शब्दों की सीमाएं भी हैं. कई शब्द ऐसे हैं जो हमारे अनुभव के दायरे में आते हैं, और कई हमारे अनुभव से परे है, जैसे- अनंत. अनंत जिसका न आदि है न अंत. हमने इस पृथ्वी पर कभी शुरुआत की थी और देह के रूप में एक दिन अंत भी करेंगे. जो भी हम करते हैं इन्हीं दो अवस्थाओं के बीच में करते हैं. हमारा अनुभव इसके परे नहीं जा पाता. परन्तु हमारे पास एक शब्द है जो हमें संकेत देता है कि उसकी प्रकृति (nature) कैसी है. अनंत हमारे लिए वैसा ही शब्द है जैसे पुरुष के लिए प्रसव पीड़ा. अनंत शब्द को सुनकर न हमारे मन में कोई छवि बनती है और न हमारा कोई अनुभव उसे व्यक्त कर सकता है. फिर भी इस शब्द के द्वारा हम अमूर्त अवधारणाओं (abstract concepts) के विषय चर्चा कर सकते हैं. इसी प्रकार कई और शब्द हैं.

परमेश्वर ने सत्य को प्रगट करने के लिए इस माध्यम का उपयोग किया है. प्रभु यीशु ने प्रार्थना करते समय पिता से कहा-तेरा वचन सत्य है1. सम्पूर्ण बाइबल सत्य का शाब्दिक प्रगटीकरण है. बाइबल मनुष्यों की भाषा में मनुष्यों के परे की बातों को प्रगट करती है. मनुष्यों की भाषा सीमित है, परन्तु सत्य सीमाओं में बंधा नहीं है (अन्यथा यह कदापि स्वतंत्रता नहीं ला सकता.) शब्दों में हम जो कुछ पढ़ते हैं वह हमारे स्तर का है, सत्य के स्तर का नहीं. हमारे शब्द अपर्याप्त हैं. मनुष्यों की भाषाओं में ही देखें तो एक भाषा में प्रयुक्त किसी-किसी शब्द का दूसरी भाषा में सटीक अनुवाद नहीं मिल पाता. इसका कारण यह है कि प्रत्येक भाषा अपनी ही संस्कृति में पनपी है. संस्कृति का अंतर अनुभव का अंतर बन जाता है. अनुभव का अंतर शब्दों के अंतर में परिणत हो जाता है. मनुष्य जिस संस्कृति में पैदा हुआ है वह भौतिक है. सत्य आत्मिक है. संस्कृति का विशाल अंतर है. हम शारीरिक रूप से सत्य को नहीं जान सकते. पौलुस ने लिखा- शारीरिक मनुष्य परमेश्वर के आत्मा की बातें ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वे उसकी दृष्टी में मूर्खता की बातें हैं, और न वह उन्हें जान सकता है क्योंकि उनकी जांच आत्मिक रीति से होती है2. बाइबल को शारीरिक लोग भी पढ़ते हैं और आत्मिक लोग भी, परन्तु केवल आत्मिक लोग सत्य को जान सकते हैं. लोग एक ही समय में बाइबल को पढ़ कर उसके विद्वान बन सकते हैं (संसार की दृष्टि में), उस पर लेख लिख सकते हैं, उसकी कहानियां सुना सकते हैं, गीत बना सकते हैं, वाद-विवाद कर सकते हैं और मूल सत्य से अनजान भी रह सकते हैं. ऐसा ज्ञान खोखला होता है, यह घमंड उत्पन्न करता है. यह ज्ञान मनुष्य के मैंको आभास देता है कि वह दूसरों से बढ़कर है. परन्तु सत्य को जानना मैंको नष्ट कर देता है.

द्वितीय साधन

बाइबल में शब्दों का संग्रह है, परन्तु वे संग्रह एक विशेष सन्देश को अपने भीतर धारण करते हैं. शब्दकोष में भी शब्दों का संग्रह है परन्तु उसमें कोई सन्देश नहीं है. बाइबल का प्रत्येक शब्द, वाक्य विन्यास, उसमें की घटनाएँ, लेख, गीत और सामंजस्य केवल एक ही व्यक्ति की ओर संकेत करते हैं- यीशु. प्रभु यीशु सत्य का देहधारी रूप है. व्यवस्था मूसा के द्वारा दी गयी परन्तु अनुग्रह और सच्चाई यीशु मसीह के द्वारा पहुंची3. हम मनुष्य को समझते हैं क्योंकि हम भी मनुष्य ही हैं. इसीलिए यीशु देहधारी रूप में आये ताकि उनमें सत्य को जाना जा सके. यीशु को जानना ही सत्य को जानना है.

यीशु को जानने और यीशु के बारे जानने में बहुत फर्क है. एक व्यक्ति यीशु के विषय बहुत कुछ जान सकता है- वह कैसे पैदा हुआ, उसने क्या किया, उसने क्या कहा, अभी वह कहाँ है इत्यादि, परन्तु ये सब जानने के बावजूद वह यीशु को जान ही रहा है यह नहीं कहा जा सकता है. यीशु एक व्यक्ति है. व्यक्ति को पढ़ कर, या उसके विषय सुनकर नहीं जाना जा सकता. उसे तो केवल परस्पर सम्बन्ध के द्वारा ही जाना जा सकता है. हाँ, उसके विषय पढ़कर, या सुनकर बस इतना जान सकते हैं कि सत्य को कैसे जीया जा सकता है.

एक और बात जान लेनी चाहिए- यीशु हमारे स्तर पर आये जरुर थे पर हमारे स्तर के नहीं थे. वे कहते थे- तुम नीचे के हो मैं ऊपर का हूँ4, अतः यीशु को जानने की प्रक्रिया में इसका ध्यान रखना चाहिए. दूसरी समस्या यह है कि यीशु भौतिक रूप में हमारे बीच मौजूद नहीं हैं. किसी व्यक्ति को हम उसके शरीर के कारण ही जान पाते हैं. परन्तु किसी व्यक्ति के होने के लिए उसके शरीर का होना जरुरी नहीं है. उस व्यक्ति की आत्मा ही उसका मूल व्यक्तित्व है. यदि प्रभु यीशु शारीरिक रूप में हमारे बीच होते तो हम उसके पास जाकर, उससे बातें करके, उसकी बातें सुनकर, उसके काम देखकर उसको जानते. उसको जानने से हमारे भीतर एक बदलाव होता. यह बदलाव स्वतंत्रता को जन्म दे सकता था. परन्तु वर्तमान में यह संभव नहीं है. दूसरी ओर जो लोग यीशु मसीह के देह में रहने के दिनों में थे वे भी उसे ठीक से नहीं जान पाए. कुछ ने तो उसे पागल घोषित कर दिया5, कुछ ने दुष्टात्माग्रस्त6, कुछ ने भरमाने वाला7, और कई ने तो उसे क्रूस पर चढ़ा के मार भी डाला8. जो चेले उसके साथ में थे वे भी उसे नहीं समझ पाए. अपने पकडवाए जाने के ठीक पहले जब वह अपने चेलों को अंतिम उपदेश दे रहा था तो चेलों की अज्ञानता शीर्ष पर थी9. यीशु ने कहा कि अभी तुम सत्य को समझने के काबिल नहीं हो10. उसका शरीर में उपस्थित होना भी लोगों को सत्य का ज्ञान न दे पाया. यदि कोई व्यक्ति यीशु को ठीक से जान भी पाता तो भी केवल मनुष्य के स्तर पर क्योंकि यीशु मनुष्य के रूप में थे. सत्य की गलत छवि उसके मन में उत्पन्न होती. इसलिए यीशु का जाना हमारे लिए अच्छा है11. क्योंकि जाते-जाते उसने ऐसा कुछ किया जिसने सत्य को जानने का द्वार हमारे लिए खोल दिया.

सत्य का आत्मा

हमारे लिए राहत की बात यह है कि भले ही यीशु शरीर में यहाँ नहीं हैं परन्तु उसका आत्मा यहाँ है, जिसे उसने पेंतिकोस्त के दिन उंडेलदिया12. इस आत्मा को उसने एक नाम दिया- सत्य का आत्मा13. वह आत्मा हमारे लिए उपलब्ध है. उसे जानकार ही सत्य को जाना जा सकता है. उसमें सत्य को पूर्णता से जाना जा सकता है. परन्तु पवित्रात्मा को जानने और मनुष्य को जानने में अंतर है. मनुष्य को हम शरीर में होकर जानते हैं, आत्मा को जानने के लिए दूसरे आयाम में कदम रखना पड़ता है. वहां के लिए हम अनजान रहते हैं. वहां के लिए हमारी भाषा में शब्द नहीं हैं क्योंकि वे अनुभव हमारी संस्कृति के भाग नहीं हैं. सत्य को जानने के लिए संस्कृति बदलनी पड़ती है, तरीके बदलने पड़ते हैं, दृष्टि बदलनी पड़ती है. जो ऐसा बन जाता है वही व्यवहारिक रूप में आत्मिक व्यक्ति है. परन्तु वे बदलाव कैसे संभव हैं? दूसरे आयाम में कदम रखना हमारे बस की बात नहीं. परन्तु प्रभु यीशु ने उसका प्रबंध अपनी देह में होकर हमारे लिए किया है.

नए आयाम में कदम रखना अँधेरे में टटोलने के समान है. जब हम वहां पहुँचते हैं तो वहां का पूर्व ज्ञान हमें ठोकर खाने से बचा सकता है. बाइबल हमें उसी का पूर्व ज्ञान देती है और यीशु मसीह के द्वारा हम समझते हैं कि मनुष्य के रूप में सत्य को कैसे जीया जा सकता है. बाइबल उस मानचित्र के समान है जो वास्तविकता का प्रतिबिम्ब हमारे सामने प्रस्तुत करती है, पवित्रात्मा उस मानचित्र की वास्तविकता है, यीशु उस वास्तविकता का हमारे स्तर पर दृश्य रूप है. बाइबल मनुष्यों की भाषा में सत्य का प्रक्षेपण है, यीशु उसका मनुष्य रूप है और पवित्रात्मा मनुष्य से परे उसका मूल तत्व है. पवित्रात्मा कोई सिद्धांत नहीं है, कोई कथन या कथा भी नहीं है, वही वास्तविकता है सत्य का आत्मा है. उसे जाना जा सकता है. यीशु ने अपने बलिदान के द्वारा उसे जानने का द्वार खोला है.

बाकि हम अगले अंक में.


1युहन्ना 17:17
21 कुरिन्थ 3:14
3युहन्ना 1:17
4युहन्ना 8:23
5,6युहन्ना 10:20
7युहन्ना 7:12
8प्रेरित 2:23
9युहन्ना 14:8-11
10युहन्ना 16:12
11युहन्ना 16:7
12प्रेरित 2:1-4
13युहन्ना 16:13