सत्य को जानना-1
तुम सत्य को
जानोगे और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा. (युहन्ना 8:32)
सत्य ! यह है क्या? बहुत कम लोग हैं
जो इसकी खोज करते हैं. बहुत से लोग तो सोचते हैं बंधन हैं . लेकिन यीशु मसीह ने तो
कहा था कि सत्य को जानने से सत्य हमें स्वतंत्र करता है. यदि कोई सोचता है कि वह
सत्य को जानता है और बंधन में है, तो उसे सत्य को जानने का भ्रम है. इसी भ्रम में सारा जीवन
कट जाता है. बंधन अपनी जगह बने रहते हैं. स्वतंत्रता सिर्फ शब्दों में ही रह जाती
है. प्रार्थनाएं बहुत लोग करते हैं, बहुत कुछ मांगते हैं प्रभु से; लेकिन कोई नहीं
पूछता कि सत्य क्या है? प्रभु यीशु ने कई बार यहूदियों को सत्य बताने की कोशिश की
लेकिन उनहोंने सुनना नहीं चाहा.1
फिर भी एक व्यक्ति ने
यीशु से पूछा , “सत्य क्या है?” और पूछने वाला भी कौन था – एक राजनीतिक
व्यक्ति. पिलातुस . जिसको सत्य से कोई सरोकार ही नहीं था. लेकिन पूछा तो सही.
हालाँकि उसने भी उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की.2 यहाँ तो कोई पूछने वाला भी नहीं. चेलों ने भी नहीं पूछा, कि चलो जब गुरु
कुछ बताना चाहते ही हैं तो पूछ लिया जाये. किसी को परवाह नहीं. सब भ्रम में हैं – सत्य को जानने
के भ्रम में. यीशु ने कह दिया था कि इसको जानना तुम्हें स्वतंत्र करेगा. पर किसे
परवाह. सब अपने बंधनों में मस्त हैं. कौन चाहता है कि बंधन टूटें? सत्य को जान
जाओगे -बंधन टूट जायेंगे- सारा मजा किरकिरा हो जायेगा. अच्छा है न जानना. पूछने की
जहमत कौन उठाये. यहूदियों को देखो! वे तो मानने को तैयार भी नहीं कि किसी बंधन में
हैं.3 फिर छूटना किससे
है. तुम्हारा सत्य है तुम जानो! हम आज़ाद हैं, तुम्हारे सत्य की जरुरत ही नहीं.
कैसी विडंबना! जो बंधन
में है वो सोचता है कि मैं आज़ाद हूँ. जो अज्ञानता में है वह सोचता है कि मैं
जानता हूँ. फिर उसे छुड़ाया कैसे जाए,उसे बताया कैसे जाए! कम से कम चेलों
को तो पूछ लेना था. पर वे इतने दार्शनिक नहीं थे. जीवन-यापन हो रहा है, भीड़ पीछे-पीछे
आ रही है, नाम-शोहरत मिल रहा है, फिर सत्य का करना क्या है?
कैसा दर्द था प्रभु यीशु
का. वह कहता है, मैं ने इसलिए जन्म लिया और इसलिए संसार में आया कि सत्य की
गवाही दूँ.4 लेकिन यहाँ तो
किसी को सत्य की परवाह नहीं. कोई जानना नहीं चाहता. पर गवाही भी देनी है. बताना तो
है. यही उसके जन्म लेने का उद्देश्य था…
सत्य की गवाही देने में
समस्या यह है कि उसे जबरदस्ती किसी को बताया नहीं जा सकता. सत्य किसी पर थोपा नहीं
जा सकता. जब तक उसको ग्रहण करने के लिए पात्र तैयार नहीं उसे उंडेला नहीं जा सकता.
सत्य बर्बाद नहीं किया जा सकता. पर गवाही देनी तो है. पर कैसे? उसने तरीका
निकला और बताया -सत्य मैं हूँ.5 बहुत सरल उत्तर- सीधा और सम्पूर्ण लेकिन उतना ही भेदपूर्ण.
कह के भी नहीं कहा और नहीं कहते हुए भी कह दिया. उसके कथन भेद भरे होते थे- कि वे
देखते हुए भी न देखें, और सुनते हुए भी न समझें.6 उसने तो कई बार कहा भी, जिसके सुनने के
कान हों वह सुन ले.7
आज किसी भी मसीही को पूछ
कर देखो, ‘सत्य क्या है?’ वह कहेगा, ‘सत्य यीशु मसीह
है.’ उसे लगता है कि वह सत्य को जानता है. लेकिन उसके जीवन को
झांक कर देखो -वह अनेक प्रकार के बंधनों में पड़ा है. उसे सत्य को जानने का भ्रम
है. उसने देखते हुए भी नहीं देखा और सुनते हुए भी नहीं समझा.
दरअसल सत्य को शब्दों
में बताया नहीं जा सकता. जब शब्द मौजूद नहीं थे तब से सत्य मौजूद है- अकथित और
अनंत. शब्द तो बाद में गढ़े गए. शब्द मनुष्यों की सीमित बुद्धि का प्रमाण है. उस
अकथित, अनंत का देहधारी रूप है यीशु. लेकिन जो उसे शब्दों में उसे
जानता है वह वास्तव में उसे नहीं जानता. फिर उसे जाना कैसे जा सकता है? जाना भी जा सकता
है या नहीं?
जाना जा सकता है, लेकिन शब्दों
में नहीं. दूसरे माध्यम से. तुम जानने के कितने माध्यमों को जानते हो? पांच? पांच
ज्ञान्नेंद्रिय हैं तुम्हारे पास? लेकिन सत्य इनसे परे है. यदि वह इनके दायरे में होता तो
बहुत लोग जान लेते. जान लेते और स्वतंत्र हो जाते. फिर कोई सत्य को कैसे जान सकता
है?
आने वाले लेख का इंतजार
करे. प्रार्थना करे.